यह मनुष्य शरीर पांच तत्वों से बना है उसमें मुख्य आधार पृथ्वी तत्व ही है, इस पृथ्वी तत्व का ही पिंड रूपी मनुष्य शरीर है, इस शरीर की जितनी भी गतिविधियां हैं, वह सभी पृथ्वी पर होती है, पृथ्वी का एक विशेष गुण है, धैर्य, क्षमाशीलता का जिसकी शिक्षा वह अहर्निश हमें देती है, मनुष्य इस पृथ्वी पर क्या-क्या नहीं करता कहीं खेत में जुताई कर रहा है, कहीं बड़े-बड़े गड्ढे कर रहा है, कहीं बड़ी बड़ी खदान है, जिनमें विस्फोट किए जा रहे हैं, कहीं परमाणु परीक्षण से कितने मीटर पृथ्वी के अंदर तक कंपन पैदा कर रहे हैं, हमें कोई सुई चुभा दे,कांटा लग जाए, जोर से झझोड दे कैसा लगता है, कैसी प्रतिक्रिया देते हैं, पर हजारों सालों से मनुष्य पृथ्वी पर क्या-क्या उठापटक नहीं कर रहा क्या क्या आघात नहीं कर रहा पर पृथ्वी ना रोती है, ना चिल्लाती है, ना किसी से बदला लेती है, संसार के सभी प्राणी अपने अपने प्रारब्ध के अनुसार चेष्टा कर रहे हैं, वह समय-समय पर भिन्न-भिन्न प्रकार से कोई निजी स्वार्थ कोई पर स्वार्थ किसी का किसी के द्वारा किसी भी प्रकार का अहित नुकसान प्रभुत्व गुरुता लघुता आदि प्रकार के जाने अनजाने में आक्रमण कर बैठते हैं, वीर पुरुष को चाहिए कि उनकी विवशता समझे ना तो अपना धीरज खोए और ना ही क्रोध करें, अपने मार्ग पर ज्यों का त्यों चलता रहे,पृथ्वी के ही विकार पर्वत और वृक्ष कौन सी शिक्षा देते हैं, उनका सारी इच्छाएं क्रियाएं सदैव दूसरों के हित के लिए होती है पर्वत तोड़कर पत्थर बनाना पत्थरों का उपयोग मनुष्य विभिन्न कार्यों में करता आया है, पत्थर से ही भगवान की मूर्ति बनाकर उसमें भगवान का साक्षात्कार करता है मनुष्य अपने नाम को भी अमर बनाने के लिए पत्थर पर नाम लिखता है, वृक्षों का जीवन भी दूसरों के लिए ही है, धूप लगने पर छाह देते हैं, भूख मिटाने के लिए वह फल खाता है, उपयोग के लिए लकड़ी रूपी अपना शरीर भी दे देते हैं, बल्कि ऐसा कहें कि इनका जन्म ही एकमात्र दूसरों का हित करने के लिए ही हुआ है,
"परोपकाराय फलिंत वृक्ष"
मनुष्य को चाहिए कि उनकी शिष्यता स्वीकार करके उनसे परोपकार की शिक्षा ग्रहण करें।
अपने मार्ग पर ज्यों का त्यों चलता रहे।
धैर्य और क्षमाशीलता का गुण कभी मनुष्य ने नहीं छोड़ना पर यह धैर्य और क्षमाशीलता हमारे अपने अहंकार के लिए है। किंतु जब भगवान की बनाई सृष्टि पर संकट उपस्थित होने पर संकट खड़ा करने वाले के बारे में भी हमने विवेक से विचार करना एक कथा आती है।"क्षमा बड़न को चाहिए छोटन को उत्पात! क्या श्रीहरि को घटो, जो भृगु मारी लात|| देवताओं ने भगवान की परीक्षा लेने के लिए भृगु ऋषि को भेजा था भृगु ऋषि ब्रह्मा जी की परीक्षा, शिवजी की परीक्षा, लेने के पश्चात बैकुंठ पहुंचे उस समय भगवान विष्णु शेष शैया पर विश्राम कर रहे थे, मां लक्ष्मी उनके चरण दबा रही थी, भृगु ऋषि ने जाते ही आव देखा ना ताव और भगवान की छाती पर लात मार दी पर भगवान क्या कहते हैं, महर्षि आपके पैर में चोट तो नहीं लगी, आपका पैर बहुत मुलायम मक्खन के समान है मेरी छाती तो बड़ी कठोर है, यदि आपको चोट लगी हो तो मुझे क्षमा करना। यदि कभी हमारे साथ अपना ही कोई ऐसा व्यवहार करें तब हमारी क्या प्रतिक्रिया होती है। यही हमारा मुमुक्षु भाव प्रदर्शित होता है। एक कथा और आती है एक सन्यासी नदी में स्नान कर रहे थे स्नान करते वक्त एक बिच्छू उनके सामने से जल में बहते हुए जा रहा था उन्होंने उसकी जान बचाने के लिए उसे पकड़ कर हथेली में लिया हथेली में लेते ही बिच्छू ने डंक मार दिया, उसके जहर के कारण दर्द से वह हथेली से गिर गया सन्यासी ने फिर उसे पकड़कर बचाया उसने फिर डंक मार दिया फिर जल में गिर गया सन्यासी ने फिर हथेली में लिया उसने फिर डंक मारा ऐसा कई बार हुआ नदी के तट पर खड़े एक व्यक्ति ने यह देखा तो सन्यासी से कहा वह बिच्छू आपको बार-बार काट रहा है, फिर भी आप उसे पकड़ रहे हैं, सन्यासी ने कहा डंक मारना बिच्छू का स्वभाव है, वैसे ही क्षमा करना मेरा स्वभाव है, जब बिच्छू अपना स्वभाव नहीं छोड़ रहा है, तो मैं क्यों अपना स्वभाव छोड़ दूं। सन्यासी ने जो उत्तर दिया वह प्रत्येक मनुष्य को अपने आचरण में लाना चाहिए। पर इतिहास को ध्यान में रखते हुए यही बात राजा के साथ नहीं हैं। पृथ्वीराज ने धर्म ,संस्कृति, राष्ट्र, गौ हत्यारे, मंदिरों को समाप्त करने वाले मोहम्मद गौरी को कई बार क्षमा किया जिससे राष्ट्र धर्म संस्कृति का ह्रास हुआ। इसलिए मनुष्य ने अपना विवेक रखते हुए । सन्यासी,योगी, ग्रहस्थ, राजा इन्होंने विवेक के साथ धैर्य, क्षमा शीलता परोपकार इन सारी बातों का अपने जीवन में आचरण करते हुए परमात्मा प्राप्ति की ओर बढ़ना चाहिए
पृथ्वी को हमने मां के समान माना है, मां के समान पूजा है, और मां के समान ही पूज़ते हैं, कारण हैं हम सब जानते हैं कि पृथ्वी पर ही पैदा होकर इसके द्वारा उत्पन्न अनाज से ही हमारा शरीर पोषित होता है,यदि पृथ्वी अनाज पैदा करना बंद कर दे, तो हम कहां से रोटी खाएंगे, पृथ्वी यदि सब्जियां पैदा करना बंद कर दे, कहां से सब्जियां खाएंगे, पृथ्वी यदि बीज को पौधा, पौधे को वृक्ष, वृक्ष से फल यदि पृथ्वी बीज को पौधा ना बनने दे, वृक्ष ना बने तो फल कहां से आएंगे हम फल कहां से खाएंगे, यदि पृथ्वी के अंदर से जल नहीं आएगा जल आना बंद हो गया तो हम कहां से अपनी प्यास बुझाएंगे । अवसर आने पर अपने आपको अपने जीवन को साध कर रखना किसी के द्वारा किसी भी प्रकार का व्यवहार जो आम व्यक्ति को अच्छा महसूस ना करता हो ऐसा कोई व्यवहार अपने द्वारा ना हो, सदैव जीवन में धैर्य, हर परिस्थिति में क्षमा शीलता इस गुण को लेकर हम आगे बढ़ेंगे तो निश्चित करके अपने जीवन के पहले सोपान पहली सीढ़ी को हम पार कर जाएंगे।
-- वरिष्ठ लेखक --
बृज किशोर भार्गव "मुमुक्षु साधक"