मेरी व्यथा सुनो...
सुनो शहर वालों .....

हम अगर ज़िंदा रहे तो फिर से आयेंगे...

तुम्हारे शहरों को आबाद करने...

वहीं मिलेंगे, तुम्हारी गगन चुंबी इमारतों के नीचे...

प्लास्टिक की तिरपाल से ढकी अपनी झुग्गियों में...?

चौक-चौराहों पर अपने औजारों के साथ...

फैक्ट्रियों से निकलते काले धुंए की धुंन्द में खांसते हुए...

होटलों, ढाबों पर खाना बनाते, बर्तनो को धोते हुए...

ऐ वेटर, की आवाज सुनकर आपकी टेबल तक दौड़ पड़ने वाले अर्दली की तरह...

हर गली, हर नुक्कड़, फेरियों मे

रिक्शा खींचते, आटो चलाते 

आदमी और सामान को, मंजिलों तक पहुंचाते बाशिन्दे की तरह...

हर कहीं , हम मिल जायेंगे

कभी पानी पिलाते, कभी गन्ना पेरते...

कभी कपड़े धोते, तो कभी प्रेस करते...

समोसा, कचौड़िया तलते,पानीपूरी बेचते हर गली चौबारे मे...

ईंट के भट्ठों पर, मिट्टी मे संधे तेजाब से जेवरात चमकाते...

पालिश करते जूतों से लेकर स्टील के बर्तनों तक...

ब्रास के कारखानों से लेकर

फिरोजाबादी की चूड़ियों तक...

पंजाब के खेतों से लेकर 

गोबिंद गढ़ की लौहामण्डी तक...

चायबगानों से लेकर जहाजरानी तक...

मंडियों मे माल ढोते की हम हम्माली करते तक...

तुम्हे फिर मिलेंगे हर मुहल्ले से आपके घर तक...

बस इस बार...

एक बार घर पहुंचा दो...

घर पर बूढी मां है-बाप है...

मोहल्ले वाली की घूरती नजरो से जवान हुई बेटी भी है...

सुनकर ये खबर वो परेशान हैं

की कोरोना किसी को नही 

बख्श रहा है...

हर तरफ बस मौत का खौफ पसर रहा...

बाट जोह रहे हैं , काका-काकी

मत रोको हमे जाने दो...

आयेंगे फिर हम जिंदा रहे तो जिंदगी जो जिनी है...

नही तो...

कम से कम , अंतिम समय मे

अपनी मिट्टी मे तो मिल जाने दो...


धर्मेश जोहरे ( डी.के.)

उज्जैन,म.प्र.