बदइंतज़ामियों का 'मरकज़' "आरडी गार्डी" - लेखक वरिष्ठ पत्रकार डॉ विवेक चौरसिया 

कोरोना के ख़िलाफ़ महायुद्ध में उज्जैन में बदइंतज़ामियों के मरकज़ साबित हुए मेडिकल कॉलेज को महीने भर बाद कलेक्टर ने नोटिस के नाम पर एक कागज़ का टुकड़ा क्या टिकाया, इलाक़े के सोये पड़े सारे नेता बिल से निकलकर अपनी पीठ ऐसे थपथपाने लगे मानो कोरोना को पहचान कर उसकी कॉलर पकड़ ली हो! क्या सांसद, विधायकों और प्रशासनिक अफसरों को नहीं पता कि ऐसे जाने कितने नोटिस इस कॉलेज का संचालक मंडल अपना पिछवाड़ा पोछ कर डस्टबिन में डाल चुका है और न जाने कितनी गर्मा-गर्म चेतावनियाँ अपनी चड्डी के चोर जेब में धरकर ठंडी कर चुका है। 

जिम्मेदारों! क्या आपको एक फ़ीसद भी उम्मीद है कि 'लायसेंस निरस्ती की इस फुस्सी बम जैसी चेतावनी' के बाद इस धूर्त, भ्रष्ट, नीच और कपटी कॉलेज की नीति, नीयत, चाल और चरित्र ज़रा भी बदल सकेगा ? यदि हाँ, तो यक़ीन मानिए ये केवल भ्रम है और याद रखिये भ्रमित तन्त्र की कीमत तन्त्र नहीं चुकाता बल्कि समाज को चुकाना पड़ती है। आप तैयार रहिएगा। शहर भी तैयार है। आज 123 मरीज़ हैं, पीछे फिर लम्बी कतार है!

इसलिए कि एक बार कोरोना का इलाज़ सम्भव है मगर उज्जैन में चिकित्सा के नाम पर कलंक बने आर.डी. गार्डी मेडिकल कॉलेज का 'इलाज़' नामुमकिन है। इसका कलुषित इतिहास गवाह है कि यह सिर्फ़ बदइंतज़ामियों का मरकज़ भर नहीं है बल्कि शिक्षा और स्वास्थ्य का ऐसा मरघट है जिसमें लालच की लकड़ियों और कपट के कण्डों पर मानव धर्म के उसूलों की अनगिनत चिताएँ फूँकी जा चुकी है। किसे नहीं पता कि अस्पताल के नाम पर सरकार से कौड़ियों के मोल हथियाई गई ज़मीनों पर किस तरह संचालक मंडल ने चैरिटबल अस्पताल और मेडिकल कॉलेज के भव्य भवन खड़े किए और किस तरह चैरिटी के बहाने सरकार, समाज, स्वास्थ्य, सेवा और शिक्षा के कर्ताधर्ता संस्थानों की आँखों में धूल झोंककर अपनी जेबें भरी हैं। कॉलेज में एडमिशन के लिए डोनेशन का खेल और मान्यता देने वाले प्रतिष्ठानों को बरगला कर की गई रेलमपेल से बीते बीस बरस के अख़बार भरे हुए हैं।

माफ़ कीजिए, कोरोना काल में प्रशासन से शुरुआत में ही बड़ी भूल हो गई जो मेडिकल कॉलेज को रेड अस्पताल बना दिया गया। मानो शर्ट का पहला ही बटन गलत लग गया! नतीज़ा वहीं हुआ जो होना था। पहले दानीगेट की लक्ष्मीबाई कॉलेज के बंद आईसीयू के दरवाज़े पर तड़प-तड़पकर मरी और फिर कलेक्टर कार्यालय के बाबू धर्मेंद्र की साँसें बेरहमी से नोंच ली गई। जिस जगह को रेड अस्पताल मान प्रशासन ने 500 बिस्तरों का दावा किया और इलाज़ की सबसे ज़्यादा आस पाली, उसी कॉलेज के डायरेक्टर ने अपने रसूख़ की आड़ में भतीजे का एक्सरे कराकर न जाने कितने मासूमों को कोरोना का 'प्रसाद' बाँट दिया। शहर में कार्रवाई की आवाज़ें उठी मगर सत्ता के सामने नतमस्तक प्रशासन को डायरेक्टर की करतूत में न तो पाप नज़र आया न ही मेडिकल कॉलेज में 'व्यवस्था' की मगरूरी का बोध हुआ। लीजिए, अब उज्जैन में मरीज़ों का बढ़ता अम्बार है और आपको दिए गए नोटिस पर मग़रूरों से 'जवाब' का इंतज़ार है। मेरी नज़र में इसी का नाम भ्रम है और यही बगैर पिये का ख़ुमार है।

जिस कॉलेज में डायरेक्टर की मर्ज़ी के बगैर एक पत्ता तक नहीं हिल सकता वहीं डायरेक्टर जब कोरोना फैलाने का पाप कर सेल्फ़ क्वेरेंटाइन में जा बैठा हो, वहाँ व्यवस्था का भट्टा बैठ जाने पर किसी को हैरान होने की ज़रूरत नहीं है। यदि आपको लगता है कि एक नोटिस भर थमा देने से सब कुछ ठीक हो जाएगा तो यह सिर्फ़ बेमानी और बक़वास है। होना तो यह चाहिए कि प्रशासन सबसे पहले सूबे के मुखिया को भरोसे में लेकर इस संस्थान की रक्षा में नींबू-मिर्ची की तरह लटके सत्ता पक्ष के नेताओं को दरकिनार करें और  केवल दण्ड की भाषा में अपने अधिकार का इस्तेमाल करें और दण्डितों को सजा दे ।

प्रशासन को पता तो होगा ही, केवल स्पष्ट करने की ज़रूरत है कि इस शहर के ज्यादातर निजी अस्पताल वर्तमान सत्ता पक्ष से जुड़े नेताओं के हैं। आम दिनों में सेवा का राग अलाप कर धंधा करने वाले इन नेताओं के ये सारे प्रायवेट अस्पताल मुसीबत के इस घड़ी में 'मंदिरों' की तरह शांत रस की प्रार्थना सुनाकर होम क्वेरेंटाइन हो गए हैं। जिले की 17 लाख की आबादी को मौत के मुँह से बचाने के लिए बमुश्किल 80 डॉक्टर्स सहित अधिकतम 1700 का मेडिकल स्टॉफ जान जोख़िम में डालकर मैदान-जंग में जूझ रहा है। न इन योद्धाओं के पास सुरक्षा साधन हैं, न ही मनोबल बढ़ाने के लिए किसी के दो भरोसे भरे बोल। तब संक्रमित स्टॉफ नर्सों को उपचार से पहले एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल के बीच फुटबॉल बनाने और पीपीई किट न मिलने पर मेडिकल स्टॉफ को विरोध में नारे लगाते देख प्रशासन की पेशानी पर पसीना नहीं आना चाहिए। इसलिए कि जब तक सही समय पर सही को सही और गलत को गलत कहने और सुधारने का साहस नहीं होगा, तब तक कितना भी समर्थ 'सिस्टम' क्यों न हो, वह औंधे मुँह गिरेगा ही। 

दंडाधिकारी हुजूरे आला! मेडिकल कॉलेज के निकृष्ट संचालक मंडल को आपने चेतावनी दी है, कृपया सरकारी स्वास्थ्य महकमे को ज़रा चेतना भी दीजिए और सत्ता पक्ष के निजी अस्पतालों को भी चैतन्य कीजिए। आपका दिल जानता है इस 'चेतावनी' से कुछ नहीं होगा पर मोर्चे पर मौत की राह में आड़े पड़े शासन के स्वास्थ्यकर्मियों को मिली चेतना वो चमत्कार कर देगी जो 500 बिस्तरों वाला यह बिकाऊ मेडिकल कॉलेज कभी न कर पाएगा!

लेखक वरिष्ठ पत्रकार डॉ विवेक चौरसिया