कश्मीरी पंडितों की खुलेआम हत्या की सच्चाई पर बनी फिल्म शिकारा


★यह फिल्म 7 फरवरी, 2020 को सिनेमाघरों में रिलीज होगी
★फ़िल्म में 4000 असली पंडितों को शामिल किया गया है । 
★मस्जिदों से लाउडस्पीकरों से ऐलान हो रहा था कि 'काफिरो को मारो, हमें कश्मीर चाहिए पंडित महिलाओं के साथ ना कि पंडित पुरुषों के साथ, यहां सिर्फ निजामे मुस्तफा चलेगा...।'



फ़िल्म का 37 सेकंड का वीडियो बैकग्राउंड विरोध कर रहे लोगों के नारे से शुरू होता है।
इसमें कहा जा रहा है, ‘तुम काफिरों, हमारे कश्मीर को छोड़ दो।’ जनवरी का महीना पूरी दुनिया में नए साल के लिए एक उम्मीद ले कर आता है, लेकिन कश्मीरी पंडितों के लिए यह महीना दुख, दर्द और निराशा से भरा है। 19 जनवरी प्रतीक बन चुका है उस त्रासदी का, जो कश्मीर में 1990 में घटित हुई। जिहादी इस्लामिक ताकतों ने कश्मीरी पंडितों पर ऐसा कहर ढाया कि उनके लिए सिर्फ तीन ही विकल्प थे - या तो धर्म बदलो, मरो या पलायन करो। 
उस रात पूरी घाटी में मस्जिदों से लाउडस्पीकरों से ऐलान हो रहा था कि 'काफिरो को मारो, हमें कश्मीर चाहिए पंडित महिलाओं के साथ ना कि पंडित पुरुषों के साथ, यहां सिर्फ निजामे मुस्तफा चलेगा...।' लाखों की तादाद में कश्मीरी मुस्लमान सड़कों पर मौत के तांडव की तैयारी कर रहे थे। अंत में सेना कश्मीरी पंडितों के बचाव में आई। ना कोई पुलिसवाला, ना नेता और ना ही सिविल सोसाइटी के लोग। 
ट्रेलर देख कर तो यही लगता है यदि इस फ़िल्म में हूबहू इतिहास बता दिया गया तो कई अनजान आम नागरिकों की आंखे फ़टी की फटी रह जायेगी ।सोशल मीडिया पर भी लोगों ने ट्रेलर को काफी पसंद किया है. कई लोग जहां अपनी तकलीफों को फिल्म की कहानी से जोड़ कर देख रहे हैं तो वहीं कई ऐसे भी हैं जो इस फिल्म के ट्रेलर को देखकर आक्रोश महसूस कर रहे हैं.सच्चाई पर बनी फिल्म से सच्चाई को 30 साल तक छुपाने वाले परेशान घुम रहे है । कश्मीरी पंडितों के पलायन की कहानी किसी से छिपी नहीं है। सन 1989-1990 में जो हुआ, उसका उल्लेख करते-करते तीस साल बीत गए, लेकिन इस पीड़ित समुदाय के लिए कुछ नहीं बदला है। लेकिन जो बदल रहा है उससे इस सुमदाय के अस्तित्व, संस्कृति, रीति-रिवाज, भाषा, मंदिर और अन्य धार्मिक स्थल धीरे-धीरे समय चक्र के व्यूह में लुप्त होने के कगार पर है। मोशन पोस्टर डल झील के साफ पानी में एक अकेला शिकारा (लकड़ी की नाव) के साथ समाप्त होता है. निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा अपने प्रोजेक्ट ( शिकारा – अ लव लेटर फ्रॉम कश्मीरी पंडित') के लिए तैयार हो चुकी है। इस फिल्म का ट्रेलर रिलीज कर दिया गया है जो जारी होते ही सोशल मीडिया पर ट्रेंड करने लगा है। अपने देश में शरणार्थी होने की पीड़ा क्या होती है? वर्ष 1990 में स्वतंत्र भारत में सबसे बड़ा जबरन पलायन हुआ, जिससे 4,00,000 से अधिक कश्मीरी पंडितों को कश्मीर घाटी से रातों-रात भागना पड़ा। लगभग 3 दशक बाद अब अधिकांश लौटने में असमर्थ हैं। यह एक ऐसी लव स्टोरी भी है, जो 30 वर्षों के निर्वासन के बाद भी जारी है।’
फिल्म का ट्रेलर एक प्रेमी जोड़े की बीच हो रही शेरों शायरी के साथ शुरू होती है। तभी अचानक बाहर से शोर मचता दिखता है और लोग अपने घरों से निकल सड़क पर आते हैं। ट्रेलर के सीन में दिखता है कि लोगों के घरों में आग लगाई जाती है और कुछ लोग कहते हैं कि कश्मीरी पंडितों को यहां से जाना होगा। हमें चाहिए आजादी के नारे से कश्मीरी पंडित डर जाते हैं। 
यह 19 जनवरी, 1990 की घटना बताई जा रही है। जब हजारों कश्मीरी पंडितों को सब कुछ पीछे छोड़कर कभी वापस नहीं लौटने के लिए कहा गया था। ट्रेलर में एक शिविर में कई पुरुषों और महिलाओं को देखा जा सकता है, जो अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं। इसके बाद में बताया गया है कि कश्मीरी पंडितों के सामूहिक पलायन के 30 साल बाद अब उनकी कहानी कही जाएगी।
फिल्म में प्रामाणिकता बनाए रखने के लिए, 30 साल पहले के वास्तविक फुटेज के साथ-साथ 4000 असली कश्मीरी पंडितों को शामिल किया गया है.आंखे खोलने वाली फिल्म शिकारा के ट्रेलर को काफी सराहना मिल रही है. फिल्म की कहानी उन 4 लाख कश्मीरी पंडितों का दर्द बयां करती है जिन्हें रातों-रात अपनी ही जमीनें छोड़कर दर-बदर ठोकरे खाना पड़ी . भावनाओं के उतार चढ़ावों से गुजरती एक प्रेम कहानी जो इस सारे घटनाक्रम के दौरान चलती रहती है.



फिल्म रिलीज की तारीफ का बेसब्री से इंतजार :- 


फिल्म का निर्देशन विधु विनोद चोपड़ा ने किया है और फिल्म का स्कोर ए.आर. रहमान और कुतुब-ए-कृपा द्वारा रचा गया है, जबकि गीत संध्या शांडिल्य और अभय सोपोरी द्वारा रचित हैं। फिल्म में सादिया (Sadia) और आदिल खान (Adil Khan) मुख्य भूमिका निभाते नजर आएंगे। फिल्म  7 फरवरी 2020 को रिलीज होगी।


क्या हुआ था कश्मीरी पंडितों के साथ :- किसी मां को अपना बेटा खोना पड़ा था उसकी गोद उजड़ गयी, तो किसी पत्नी के माधे का सिंदूर हमेशा के लिए मिट गया था। उसका सुहाग उजड़ गया । किसी के भाई को सरेआम गोलियों से भून कर छलनी कर दिया गया था तो किसी के पिता को हमेशा के लिए मौत की नींद सुला दिया गया था। 
कई महिलाओं के साथ सामूहिक दुष्कर्म कर उनकी हत्या कर दी गई। उन दिनों कितने ही लोगों की आए दिन अपहरण कर मार-पीट की जाती थी। पंडितों के घरों पर पत्थरबाजी, मंदिरों पर हमले लगातार हो रहे थे। घाटी में उस समय कश्मीरी पंडितों की मदद के लिए कोई नहीं था, ना तो पुलिस, ना प्रशासन, ना कोई नेता और ना ही कोई मानवाधिकार के लोग।
उस रात रूह को चीर देने वाली ऐसी आवाजें उठी थी जिसने शायद भगवान के सीने तक को चीर दिया होगा लेकिन कश्मीर के बेरहम कट्टरपंथीयों को वो आवाजे नहीं सुनाई पड़ी क्योंकि उनके सर पर हिंदुओ को मारने का जुनून सवार था । उस समय हालात इतने खराब थे कि अस्पतालों में भी समुदाय के लोगों के साथ भेदभाव हो रहा था। सड़कों पर चलना तक मुश्किल हो गया था। कश्मीरी पंडितों के साथ सड़क से लेकर स्कूल-कॉलेज, दफ्तरों में प्रताड़ना हो रही थी- मानसिक, शारीरिक और सांस्कृतिक। 19 जनवरी, 1990 की रात को अगर उस समय के नवनियुक्त राज्यपाल जगमोहन ने घाटी में सेना नहीं बुलाई होती, तो कश्मीरी पंडितों का कत्लेआम व महिलाओं के साथ सामूहिक दुष्कर्म और ज्यादा होता।



(फ़िल्म के फोटो सन्दर्भ गूगल सर्च इंजन कश्मीर की घटना की जानकारी कश्मीर पंडितों के इतिहास पर आधारित आर्टिकलो से ली गयी है । )